Bhagavad Gita का दूसरा अध्याय, जिसे सांख्य योग कहा जाता है, पूरे ग्रंथ का आधार है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके कर्तव्य (धर्म) और आत्मज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं। यह अध्याय अर्जुन की दुविधा का समाधान करते हुए उन्हें आत्मा, धर्म, और कर्म योग का महत्व समझाता है।
Bhagwat Geeta का दूसरा अध्याय, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के बीच हुए संवाद का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अध्याय जीवन, मृत्यु, और आत्मा के शाश्वत स्वरूप के बारे में गहन ज्ञान प्रदान करता है। इसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्तव्य और धर्म का महत्व समझाया और युद्ध के प्रति उसके मन में उठे द्वंद्व को शांत किया।
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
।।2.1।। संजय ने कहा -- इस प्रकार करुणा और विषाद से अभिभूत, अश्रुपूरित नेत्रों वाले आकुल अर्जुन से मधुसूदन ने यह वाक्य कहा।।
2.1 Sanjaya then told how the Lord Shri Krishna, seeing Arjuna overwhelmed with compassion, his eyes dimmed with flowing tears and full of despondency, consoled him:
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।
।।2.2।। श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ? यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।
2.2 "The Lord said: My beloved friend! Why yield, just on the eve of battle, to this weakness which does no credit to those who call themselves Aryans, and only brings them infamy and bars against them the gates of heaven?
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।।
।।2.3।। हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे ! परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ।।
2.3 O Arjuna! Why give way to unmanliness? O thou who art the terror of thine enemies! Shake off such shameful effeminacy, make ready to act!
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।2.4।।
।।2.4।। अर्जुन ने कहा -- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार भीष्म और द्रोण के साथ बाणों से युद्ध करूँगा। हे अरिसूदन, वे दोनों ही पूजनीय हैं।।
2.4 Arjuna argued: My Lord! How can I, when the battle rages, send an arrow through Bheeshma and Drona, who should receive my reverence?
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।2.5।।
।।2.5।। इन महानुभाव गुरुजनों को मारने से इस लोक में भिक्षा का अन्न भी ग्रहण करना अधिक कल्याण कारक है, क्योंकि गुरुजनों को मारकर मैं इस लोक में रक्तरंजित अर्थ और काम रूप भोगों को ही भोगूँगा।।
2.5 Rather would I content myself with a beggar's crust that kill these teachers of mine, these precious noble souls! To slay these masters who are my benefactors would be to stain the sweetness of life's pleasures with their blood.
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।2.6।।
।।2.6।। हम नहीं जानते कि हमें क्या करना उचित है। हम यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे, या वे हमको जीतेंगे, जिनको मारकर हम जीवित नहीं रहना चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने युद्ध के लिए खड़े हैं।।
2.6 Nor can I say whether it were better that they conquer me or for me to conquer them, since would no longer care to live if I killed these sons of Dhritarashtra, now preparing for fight.
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्िचतं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।2.7।।
।।2.7।। करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये।।
2.7 My heart is oppressed with pity; and my mind confused as to what my duty is. Therefore, my Lord, tell me what is best for my spiritual welfare, for I am Thy disciple. Please direct me, I pray.
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम्
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।2.8।।
।।2.8।। पृथ्वी पर निष्कण्टक समृद्ध राज्य को और देवताओं के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके।।
2.8 For should I attain the monarchy of the visible world, or over the invisible world, it would not drive away the anguish which is now paralysing my senses."
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।
।।2.9।। संजय ने कहा -- इस प्रकार गुडाकेश परंतप अर्जुन भगवान् हृषीकेश से यह कहकर कि हे गोविन्द "मैं युद्ध नहीं करूँगा" चुप हो गया।।
2.9 Sanjaya continued: "Arjuna, the conqueror of all enemies, then told the Lord of All-Hearts that he would no fight, and became silent, O King!
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।।
।।2.10।। हे भारत (धृतराष्ट्र) ! दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकमग्न अर्जुन को भगवान् हृषीकेश ने हँसते हुए से यह वचन कहे।।
2.10 Thereupon the Lord, with a gracious smile, addressed him who was so much depressed in the midst of the two armies.
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11।।
।।2.11।। श्री भगवान् ने कहा -- (अशोच्यान्) जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो और ज्ञानियों के से वचनों को कहते हो, परन्तु ज्ञानी पुरुष मृत (गतासून्) और जीवित (अगतासून्) दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।।
2.11 Lord Shri Krishna said: Why grieve for those for whom no grief is due, and yet profess wisdom? The wise grieve neither for the dead nor the living.
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।
।।2.12।। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।
2.12 There was never a time when I was not, nor thou, nor these princes were not; there will never be a time when we shall cease to be.
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13।।
।।2.13।। जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता है।।
2.13 As the soul experiences in this body infancy, youth and old age, so finally it passes into another. The wise have no delusion about this.
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।
।।2.14।। हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है; वे अनित्य हैं, इसलिए, हे भारत ! उनको तुम सहन करो।।
2.14 Those external relations which bring cold and heat, pain and happiness, they come and go; they are not permanent. Endure them bravely, O Prince!
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
।।2.15।। हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है।।
2.15 The hero whose soul is unmoved by circumstance, who accepts pleasure and pain with equanimity, only he is fit for immortality.
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
।।2.16।। असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व, तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।
2.16 That which is not, shall never be; that which is, shall never cease to be. To the wise, these truths are self-evident.
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।2.17।।
।।2.17।। उस वस्तु को तुम अविनाशी जानों, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।।
2.17 The Spirit, which pervades all that we see, is imperishable. Nothing can destroy the Spirit.
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।
।।2.18।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।।
2.18 The material bodies which this Eternal, Indestructible, Immeasurable Spirit inhabits are all finite. Therefore fight, O Valiant Man!
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
।।2.19।। जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं, क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।
2.19 He who thinks that the Spirit kills, and he who thinks of It as killed, are both ignorant. The Spirit kills not, nor is It killed.
न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
।।2.20।। यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।।
2.20 It was not born; It will never die, nor once having been, can It cease to be. Unborn, Eternal, Ever-enduring, yet Most Ancient, the Spirit dies not when the body is dead.
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।
।।2.21।। हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी, नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है, वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?
2.21 He who knows the Spirit as Indestructible, Immortal, Unborn, Always-the-Same, how should he kill or cause to be killed?
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
।।2.22।। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
2.22 As a man discards his threadbare robes and puts on new, so the Spirit throws off Its worn-out bodies and takes fresh ones.
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।
।।2.23।। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
2.23 Weapons cleave It not, fire burns It not, water drenches It not, and wind dries It not.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।
।।2.24।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती), अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती), अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है; यह नित्य, सर्वगत, स्थाणु (स्थिर), अचल और सनातन है।।
2.24 It is impenetrable; It can be neither drowned nor scorched nor dried. It is Eternal, All-pervading, Unchanging, Immovable and Most Ancient.
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।
।।2.25।। यह आत्मा अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है; इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।।
2.25 It is named the Unmanifest, the Unthinkable, the immutable. Wherefore, knowing the Spirit as such, thou hast no cause to grieve.
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।
।।2.26।। और यदि तुम आत्मा को नित्य जन्मने और नित्य मरने वाला मानो तो भी, हे महाबाहो ! इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।।
2.26 Even if thou thinkest of It as constantly being born, constantly dying, even then, O Mighty Man, thou still hast no cause to grieve.
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
।।2.27।। जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है; इसलिए जो अटल है अपरिहार्य - है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।।
2.27 For death is as sure for that which is born, as birth is for that which is dead. Therefore grieve not for what is inevitable.
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।2.28।।
।।2.28।। हे भारत ! समस्त प्राणी जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद अव्यक्त अवस्था में रहते हैं और बीच में व्यक्त होते हैं। फिर उसमें चिन्ता या शोक की क्या बात है ?
2.28 The end and the beginning of beings are unknown. We see only the intervening formations. Then what cause is there for grief?
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।
।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है; कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है; और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है; और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।
2.29 One hears of the Spirit with surprise, another thinks It marvellous, the third listens without comprehending. Thus, though many are told about It, scarcely is there one who knows It.
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।
।।2.30।। हे भारत ! यह देही आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए समस्त प्राणियों के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं।।
2.30 Be not anxious about these armies. The Spirit in man is imperishable.
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।2.31।।
।।2.31।। और स्वधर्म को भी देखकर तुमको विचलित होना उचित नहीं है, क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिये नहीं है।।
2.31 Thou must look at thy duty. Nothing can be more welcome to a soldier than a righteous war. Therefore to waver in this resolve is unworthy, O Arjuna!
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।2.32।।
।।2.32।। और हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और स्वर्ग के लिए खुले हुए द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।।
2.32 Blessed are the soldiers who find their opportunity. This opportunity has opened for thee the gates of heaven.
अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।2.33।।
।।2.33।। और यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे, तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करोगे।।
2.33 Refuse to fight in this righteous cause, and thou wilt be a traitor, lost to fame, incurring only sin.
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2.34।।
।।2.34।। और सब लोग तुम्हारी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कहते रहेंगे; और सम्मानित पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी अधिक होती है।।
2.34 Men will talk forever of thy disgrace; and to the noble, dishonour is worse than death.
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।2.35।।
।।2.35।। और जिनके लिए तुम बहुत माननीय हो उनके लिए अब तुम तुच्छता को प्राप्त होओगे, वे महारथी लोग तुम्हें भय के कारण युद्ध से निवृत्त हुआ मानेंगे।।
2.35 Great generals will think that thou hast fled from the battlefield through cowardice; though once honoured thou wilt seem despicable.
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।2.36।।
।।2.36।। तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सार्मथ्य की निन्दा करते हुए बहुत से अकथनीय वचनों को कहेंगे, फिर उससे अधिक दु:ख क्या होगा ?
2.36 Thine enemies will spread scandal and mock at thy courage. Can anything be more humiliating?
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।
।।2.37।। युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे; इसलिय, हे कौन्तेय ! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।।
2.37 If killed, thou shalt attain Heaven; if victorious, enjoy the kingdom of earth. Therefore arise, O Son of Kunti, and fight!
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
।।2.38।। सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।
2.38 Look upon pleasure and pain, victory and defeat, with an equal eye. Make ready for the combat, and thou shalt commit no sin.
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।
।।2.39।। हे पार्थ ! तुम्हें सांख्य विषयक ज्ञान कहा गया और अब इस (कर्म) योग से सम्बन्धित ज्ञान को सुनो जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्मबन्ध का नाश कर सकोगे।।
2.39 I have told thee the philosophy of Knowledge. Now listen and I will explain the philosophy of Action, by means of which, O Arjuna, thou shalt break through the bondage of all action.
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।
।।2.40।। इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है।।
2.40 On this Path, endeavour is never wasted, nor can it ever be repressed. Even a very little of its practice protects one from great danger.
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।
।।2.41।। हे कुरुनन्दन ! इस (विषय) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।
2.41 By its means, the straying intellect becomes steadied in the contemplation of one object only; whereas the minds of the irresolute stray into bypaths innumerable.
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।2.42।।
।।2.42।। हे पार्थ अविवेकी पुरुष वेदवाद में रमते हुये जो यह पुष्पिता (दिखावटी शोभा की) वाणी बोलते हैं? इससे (स्वर्ग से) बढ़कर और कुछ नहीं है।।।
2.42 Only the ignorant speak in figurative language. It is they who extol the letter of the scriptures, saying, There is nothing deeper than this.'
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।2.43।।
।।2.43।। कामनाओं से युक्त? स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले लोग भोग और ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाली अनेक क्रियाओं को बताते हैं जो (वास्तव में) जन्मरूप कर्मफल को देने वाली होती हैं।।
2.43 Consulting only their own desires, they construct their own heaven, devising arduous and complex rites to secure their own pleasure and their own power; and the only result is rebirth.
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।
।।2.44।।उससे जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्र्वर्य मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही हॊती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य नही होते।
2.44 While their minds are absorbed with ideas of power and personal enjoyment, they cannot concentrate their discrimination on one point.
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
।।2.45।। हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत? निर्द्वन्द्व? नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित? योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो।।
2.45 The Vedic Scriptures tell of the three constituents of life - the Qualities. Rise above all of them, O Arjuna, above all the pairs of opposing sensations; be steady in truth, free from worldly anxieties and centered in the Self.
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।
।।2.46।। सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है? आत्मज्ञानी ब्राह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।।
2.46 As a man can drink water from any side of a full tank, so the skilled theologian can wrest from any scripture that which will serve his purpose.
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
।।2.47।। कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।
2.47 But thou hast only the right to work, but none to the fruit thereof. Let not then the fruit of thy action be thy motive; nor yet be thou enamored of inaction.
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
।।2.48।। हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।
2.48 Perform all thy actions with mind concentrated on the Divine, renouncing attachment and looking upon success and failure with an equal eye. Spirituality implies equanimity.
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।
।।2.49।। इस बुद्धियोग की तुलना में(सकाम) कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं? इसलिये हे धनंजय तुम बद्धि की शरण लो फल की इच्छा करनेवाले कृपण (दीन) हैं।।
2.49 Physical action is far inferior to an intellect concentrated on the Divine. Have recourse then to Pure Intelligence. It is only the petty-minded who work for reward.
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
।।2.50।। समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है, इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।।
2.50 When a man attains to Pure Reason, he renounces in this world the results of good and evil alike. Cling thou to Right Action. Spirituality is the real art of living.
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।
।।2.51।। बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।
2.51 The sages guided by Pure Intellect renounce the fruit of action; and, freed from the chains of rebirth, they reach the highest bliss.
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।
।।2.52।। जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।
2.52 When thy reason has crossed the entanglements of illusion, then shalt thou become indifferent both to the philosophies thou hast heard and to those thou mayest yet hear.
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।।
।।2.53।। जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे।।
2.53 When the intellect, bewildered by the multiplicity of holy scripts, stands unperturbed in blissful contemplation of the Infinite, then hast thou attained Spirituality.
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।
।।2.54।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है कैसे बैठता है कैसे चलता है
2.54 Arjuna asked: My Lord! How can we recognise the saint who has attained Pure Intellect, who has reached this state of Bliss, and whose mind is steady? how does he talk, how does he live, and how does he act?
श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
।।2.55।। श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
2.55 Lord Shri Krishna replied: When a man has given up the desires of his heart and is satisfied with the Self alone, be sure that he has reached the highest state.
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
।।2.56।। दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।
2.56 The sage, whose mind is unruffled in suffering, whose desire is not roused by enjoyment, who is without attachment, anger or fear - take him to be one who stands at that lofty level.
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।
।।2.57।। जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है।।
2.57 He who wherever he goes is attached to no person and to no place by ties of flesh; who accepts good and evil alike, neither welcoming the one nor shrinking from the other - take him to be one who is merged in the Infinite.
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।
।।2.58।। कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है? तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।
2.58 He who can withdraw his senses from the attraction of their objects, as the tortoise draws his limbs within its shell - take it that such a one has attained Perfection.
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।
।।2.59।। निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है।।
2.59 The objects of sense turn from him who is abstemious. Even the relish for them is lost in him who has seen the Truth.
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।
।।2.60।। हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।
2.60 O Arjuna! The mind of him, who is trying to conquer it, is forcibly carried away in spite of his efforts, by his tumultuous senses.
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।
।।2.61।। उन सब इन्द्रियों को संयमित कर युक्त और मत्पर होवे। जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है।।
2.61 Restraining them all, let him meditate steadfastly on Me; for who thus conquers his senses achieves perfection.
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
।।2.62।। विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उसमें आसक्ति हो जाती है? आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है।।
2.62 When a man dwells on the objects of sense, he creates an attraction for them; attraction develops into desire, and desire breeds anger.
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
।।2.63।। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।
2.63 Anger induces delusion; delusion, loss of memory; through loss of memory, reason is shattered; and loss of reason leads to destruction.
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।2.64।।
।।2.64।। आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रस्ेााद) प्राप्त करता है।।
2.64 But the self-controlled soul, who moves amongst sense objects, free from either attachment or repulsion, he wins eternal Peace.
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।
।।2.65।। प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।।
2.65 Having attained Peace, he becomes free from misery; for when the mind gains peace, right discrimination follows.
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।2.66।।
।।2.66।। (संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ
2.66 Right discrimination is not for him who cannot concentrate. Without concentration, there cannot be meditation; he who cannot meditate must not expect peace; and without peace, how can anyone expect happiness?
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
।।2.67।। जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है वैसे ही विषयों में विरचती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय का अनुकरण मन करता है? वह एक ही इन्द्रिय इसकी प्रज्ञा को हर लेती है।।
2.67 As a ship at sea is tossed by the tempest, so the reason is carried away by the mind when preyed upon by straying senses.
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.68।।
।।2.68।। इसलिये? हे महाबाहो जिस पुरुष की इन्द्रियाँ सब प्रकार इन्द्रियों के विषयों के वश में की हुई होती हैं? उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।
2.68 Therefore, O Might-in-Arms, he who keeps his senses detached from their objects - take it that his reason is purified.
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।
।।2.69।। सब प्रणियों के लिए जो रात्रि है? उसमें संयमी पुरुष जागता है और जहाँ सब प्राणी जागते हैं? वह (तत्त्व को) देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है।।
2.69 The saint is awake when the world sleeps, and he ignores that for which the world lives.
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।
।।2.70।। जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में (अनेक नदियों के) जल (उसे विचलित किये बिना) समा जाते हैं? वैसे ही जिस पुरुष के प्रति कामनाओं के विषय उसमें (विकार उत्पन्न किये बिना) समा जाते हैं? वह पुरुष शान्ति प्राप्त करता है? न कि भोगों की कामना करने वाला पुरुष।।
2.70 He attains Peace, into whom desires flow as rivers into the ocean, which though brimming with water remains ever the same; not he whom desire carries away.
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।2.71।।
।।2.71।। जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित? ममभाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त करता है।।
2.71 He attains Peace who, giving up desire, moves through the world without aspiration, possessing nothing which he can call his own, and free from pride.
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।।
।।2.72।। हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है।।
2.72 O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attain, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal."
मुख्य सन्देश:
आत्मा का शाश्वत स्वरूप (Eternal Nature of the Soul):
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि आत्मा अजर-अमर है।
👉 "न आत्मा को जलाया जा सकता है, न काटा जा सकता है, न ही मारा जा सकता है।"
यह संदेश हमें यह सिखाता है कि शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अमर है।
कर्तव्य का पालन (Importance of Duty):
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह कहा कि धर्म युद्ध करना उसका कर्तव्य है।
👉 "अपने स्वधर्म का पालन करना ही मनुष्य का परम धर्म है।"
समत्व योग (Equanimity in Life):
जीवन में सुख-दुख, लाभ-हानि, और जय-पराजय को समान रूप से स्वीकार करने की शिक्षा दी गई है।
👉 "सुख-दुख में समभाव रखना ही सच्चा योग है।"
कर्म योग की शुरुआत (Introduction to Karma Yoga):
श्रीकृष्ण ने कहा कि बिना फल की चिंता किए कर्म करना चाहिए।
👉 "कर्म किए जा, फल की इच्छा मत कर।"
मोह और द्वंद्व से मुक्ति (Freedom from Attachment):
अर्जुन को यह सिखाया गया कि मोह और द्वंद्व के कारण मनुष्य अपने कर्तव्यों से भटकता है।
👉 "मोह को त्याग कर कर्म में संलग्न होना चाहिए।"
Bhagavad Gita Chapter 2 (Bhagwat Geeta) हमें सिखाता है कि हमें अपने कार्यों पर ध्यान देना चाहिए और आत्मा की सच्चाई को समझना चाहिए। जीवन में आने वाली चुनौतियों को स्वीकार कर, बिना किसी भय के सही निर्णय लेने का साहस रखना चाहिए।